केले का भोज-9

उन्होंने मेरे दोनों हाथों को अपने शरीरों के नीचे दबा लिया है और मेरे पैरों को अपने पैरों के अन्दर समेट लिया है। मेरे माथे के नीचे तकिया ठीक से सेट किया जा रहा है और… स्तनों पर उनके हाथों का खेल। वे उन्हें सहला, दबा, मसल रहे हैं, उन्हें अलग अलग आकृतियों में मिट्टी की तरह गूंध रहे हैं। चूचुकों को चुटकियों में पकड़कर मसल रहे हैं, उनकी नोकों में उंगलियाँ गड़ा रहे हैं।
दर्द होता है, नहीं दर्द नहीं, उससे ठीक पहले का सुख, नहीं सुख नहीं, दर्द। दर्द और सुख दोनों ही।

वे चूचुकों को ऐसे खींच रहे हैं मानों स्तनों से उखाड़ लेंगे। खिंचाव से दोनों स्तन उल्टे शंकु के आकार में तन जाते हैं। नीचे मेरी योनि शर्म से आँखें भींचे है। सुरेश उसकी पलकों पर प्यार से ऊपर से नीचे जीभ से काजल लगा रहा है। उसकी पलकों को खोलकर अन्दर से रिसते आँसुओं को चूस चाट रहा है। पता नहीं उसे उसमें कौन-सा अद़भुत स्वाद मिल रहा है। मैं टांगें बंद करना चाहती हूँ लेकिन वे दोनों तरफ से दबी हैं।
विवश, असहाय। कोई रास्ता नहीं। इसलिए कोई दुविधा भी नहीं।

जो कुछ आ रहा है उसका सीधा सीधा बिना किसी बाधा के भोग कर रही हूँ। लाचार समर्पण। और मुझे एहसास होता है- इस निपट लाचारी, बेइज्जंती, नंगेपन, उत्तेजना, जबरदस्ती भोग के भीतर एक गाढ़ा स्वाद है, जिसको पाकर ही समझ में आता है।

शर्म और उत्तेजना के गहरे समुद्र में उतरकर ही देख पा रही हूँ आनन्दानुभव के चमकते मोती। चारों तरफ से आनन्द का दबाव। चूचुकों, योनि, भगनासा, गुदा का मुख, स्तनों का पूरा उभार, बगलें… सब तरफ से बाढ़ की लहरों पर लहरों की तरह उत्तेकजना का शोर।

पूरी देह ही मछली की तरह बिछल रही है। मैं आह आह कर कर रही हूँ वे उन आहों में मेरी छोड़ी जा रही सुगंधित साँस को अपनी साँस में खीच रहे हैं। मेरे खुलते बंद होते मुँह को चूम रहे हैं।

निर्मल, नेहा, सुरेश… चेहरे आँखों के सामने गड्डमड हो रहे हैं, वे चूस रहे हैं, चूम रहे हैं, सहला रहे हैं,… नाभि, पेट,, नितंब, कमर, बांहें, गाल, सभी… एक साथ.. प्यार? वह तो कोई दूसरी चीज है- दो व्यक्तियों का बंधन, प्रतिबद्धता। यह तो शुद्ध सुख है, स्वतंत्र, चरम, अपने आप में पूरा। कोई खोने का डर नहीं, कोई पाने का लालच नहीं। शुद्ध शारीरिक, प्राकृतिक, ईश्वर के रचे शरीर का सबसे सुंदर उपहार।

ह: ह: ह: तीनों की हँसी गूंजती है। वे आनन्दमग्न हैं। मेरा पेट पर्दे की तरह ऊपर नीचे हो रहा है, कंठ से मेरी ही अनपहचानी आवाजें निकल रही हैं।

मैं आँखें खोलती हूँ, सीधी योनि पर नजर पड़ती है और उठकर सुरेश के चेहरे पर चली जाती है, जो उसे दीवाने सा सहला, पुचकार रहा है। उससे नजर मिलती है और झुक जाती है। आश्चर्य है इस अवस्था में भी मुझे शर्म आती है।

वह झुककर मेरी पलकों को चूमता है। नेहा हँसती है। निर्मल, वह बेशर्म, कठोर मेरी बाईं चुचूक में दाँत काट लेता है। दर्द से भरकर मैं उठना चाहती हूँ। पर उनके भार से दबी हूँ। नेहा मेरे होंठ चूस रही है।

सुरेश कह रहा है- अब मैं वह इज्जत लेने जा रहा हूँ जो तुमने केले को दी।’

मैं उसके चेहरे को देखती हूँ, एक अबोध की तरह, जैसे वह क्या करने वाला है मुझे नहीं मालूम।

नेहा मुझे चिकोटी काटती है- डार्लिंग, तैयार हो जाओ, इज्जत देने के लिए। तुम्हारा पहला अनुभव। प्रथम संभोग, हर लड़की का संजोया सपना।’

सुरेश अपना लिंग मेरी योनि पर लगाता है, होंठों के बीच धँसाकर ऊपर नीचे रगड़ता है।

नेहा अधीर है- अब और कितनी तैयारी करोगे? लाओ मुझे दो।
उठकर सुरेश के लिंग को खींचकर अपने मुँह में ले लेती है।

मैं ऐसी जगह पहुँच गई हूँ जहाँ उसे यह करते देखकर गुस्सा भी नही आ रहा।

नेहा कुछ देर तक लिंग को चूसकर पूछती है- अब तैयार हो ना? करो !
निर्मल बेसब्र होकर होकर सुरेश को कहता है- तुम हटो, मैं करके दिखाता हूँ।

मैं अपनी बाँह से पकड़कर उसे रोकती हूँ। वह मुझे थोड़ा आश्चर्य से देखता है।

नेहा झुककर मेरे योनि के होंठों को खोलती है। निर्मल मेरा बायाँ पैर अपनी तरफ खींचकर दबा देता है, ताकि विरोध न कर सकूँ।
मैं विरोध करूंगी भी नहीं, अब विरोध में क्या रखा है, मैं अब परिणाम चाहती हूँ।
सुरेश छेद के मुँह पर लिंग टिकाता है, दबाव देता है। मैं साँस रोक लेती हूँ, मेरी नजर उसी बिन्दु पर टिकी है। केले से दुगुना मोटा और लम्बा।

छेद के मुँह पर पहली खिंचाव से दर्द होता है, मैं उसे महत्व नहीं देती।
सुरेश फिर से ठेलता है, थोड़ा और दर्द। वह समझ जाता है मुझे तोड़ने में श्रम करना होगा।

नेहा को अंदाजा हो रहा है, वह उसका चेहरा देख रही है। वह उसे हमेशा निर्मल की अपेक्षा अधिक तरजीह देती है। मुझे यह बात अच्छी लगती है। निर्मल जबर्दस्ती घुस आया है।

नेहा पूछती है- वैसलीन लाऊँ? पर इसकी जरूरत नहीं, चूमने चाटने से पहले से ही काफी गीली है।

सुरेश बोलता है- इसको ठीक से पकड़ो।’
दोनों मुझे कसकर पकड़ लेते हैं। सुरेश, एक भद्रपुरुष अब एक जानवर की तरह जोर लगाता है, मेरे अन्दर लकड़ी-सी घुसती है, चीख निकल जाती है मेरी।

मैं हटाने के लिए जोर लगाती हूँ, पर बेबस।

सुरेश बाहर निकालता है, लेकिन थोड़ा ही। लिंग का लाल डरावना माथा अन्दर ही है। मेरा पेट जोर जोर से ऊपर नीचे हो रहा है।

मेरी सिसकियाँ सुनकर नेहा दिलासा दे रही है- बस पहली बार ही… ‘
निर्मल- असभ्य जानवर क्रूर खुशी से हँस रहा है, कहता है- बस, अबकी बार इसे फाड़ दे।’

नेहा उसे डाँटती है।
ललकार सुनकर सुरेश की आँखों में खून उतर आया है।

मुझे मर्दों से डर लगता है, कितने भी सभ्य हों, कब वहशी बन जाएँ, ठिकाना नहीं।
नेहा सुरेश को टोकती है- धीरे से !

मगर सुरेश के मुँह से ‘हुम्म’ की-सी आवाज निकलती है और एक भीषण वार होता है।
मेरी आँखों के आगे तारे नाच जाते हैं, निर्मल और नेहा मुँह बंद कर मेरी चीख दबा देते हैं।
कुछ देर के लिए चेतना लुप्त हो जाती है…

मेरी आँखें खुलती हैं, नजर सीधी वहीं पर जाती है। सुरेश का पेडू मेरे पेडू से मिला हुआ है। लिंग अदृश्य है। मेरे ताजे मुंडे हुए पेडू में उसके पेड़ू के छोटे छोटे बालों की खूंटियाँ गड़ रही हैं।

सब मेरा चेहरा देख रहे हैं। नेहा से नजर मिलने पर वह मुसकुराती है। सुरेश धीरे धीरे लिंग निकालता है। लिंग का माथा लाल खून में चमक रहा है। मुझे खून देखकर डर लगता है। आँसू निकल जाते हैं, यह मेरा क्या कर डाला।

लेकिन नेहा प्रफुल्लित है, वह ‘बधाई हो’ कहकर मेरा गाल थपथपाती है।
निर्मल ताली बजाता है- क्या बात है यार, एकदम फाड़ डाला !’
सुरेश मानों सिर झुकाकर प्रशंसा स्वीकार करता है।

सभी मुस्कुरा रहे हैं, मैं सिर घुमा लेती हूँ।

निर्मल बढ़ता है और मेरी योनि से रिस रहे रक्त को उंगली पर उठाता है और उसे चाट जाता है- आइ लाइक ब्ल्ड’ (मुझे खून पसंद है।)
नेहा उसे देखती रह जाती है, कैसा आदमी है !

निर्मल उत्साह में है- तगड़ा माल तोड़ा है तूने याऽऽऽऽर…
बार-बार बहते खून को देख रहा है।

सुरेश आवेश में है, खून और निर्मल की उकसाहटें उसे भी जानवर बना देती हैं। वह फिर से लिंग को मेरी योनि पर लगाता है और एक ही धक्के में पूरा अन्दर भेज देता है। मैं विरोध नहीं करती, हालाँकि अब मेरे हाथ पैर छोड़ दिए गए हैं, पर अब बचाने को क्या बचा है?

नेहा भी उत्साहित है- अब मालूम हो रहा होगा इसको असली सेक्स का स्वाद। इतने दिन से मेरे सामने सती माता बनी हुई थी। आज इसका घमण्ड टूटा। जब से इसे देखा था तभी से मैं इस क्षण का इंतजार कर रही थी।’

निर्मल भी साथ देता है।

रक्त और चिकने रसों की फिसलन से ही लिंग बार बार घुस जा रहा है, नहीं तो रास्ता बहुत तंग है और इतना खिंचाव होता है कि दर्द करता है। केले से दुगुना लम्बा और मोटा होगा। मैं सह रही हूँ। योनि को ढीला छोड़ने की कोशिश कर रही हूँ ताकि दर्द कम हो।

सुरेश मेरे ऊपर लेट गया है और मुझमें हाथ घुसाकर लपेट लिया है, मुझे चूम रहा है, कोंच रहा है कि उसके चुम्बनों का जवाब दूँ।
मेरी इच्छा नहीं है लेकिन…

वह जितना हो सकता है मुझमें धँसे हुए ही ऊपर-नीचे कर रहा है। मुझे छूटने, साँस लेने, योनि को राहत देने का मौका ही नहीं मिलता।

इससे अच्छा तो है यह जल्दी खत्म हो।

मैं उसके चुम्बनों का जवाब देती हूँ।
मेरी जांघों पर उसकी जांघें सरक रही हैं, मेरे हाथ उसकी पीठ के पसीने पर फिसल रहे हैं। मेरी गुदा के अगल बगल नितम्बों पर जांघें टकरा रही हैं- थप थप थप थप।

रह-रहकर गुदा के मुँह पर फोते की गोली चोट कर जाती है। उससे गुदा में मीठी गुदगुदी होती है। निर्मल और नेहा मेरे स्तन चूस रहे हैं, मेरे पेट को, नितम्बों को सहला रहे हैं।

अचानक गति बढ़ जाती है, शायद सुरेश कगार पर है, जोर जोर की चोट पड़ने लगी है, योनि में चल रहा घर्षण मुझे कुछ सोचने ही नहीं दे रहा, हाँफ रही हूँ, हर तरफ चोट, हर तरफ से वार।

दिमाग में बिजलियाँ चमक रही हैं।

‘अब मेरा झड़ने वाला है।’
‘देखो, यह भी पीक पर आ गई है।’
‘अन्दर ही कर रहा हूँ।’

‘तुम केला निकालने आए हो या इसे प्रेग्नेंट करने?’
‘याऽऽर… अन्दर ही कर दे। मजा आएगा।’

निर्मल उसे निकालने से रोक रहा है। ‘साली की मासिक रुक गई तब तो और मजा आ जाएगा।’
‘आह, आह, आह’ मेरे अन्दर झटके पड़ रहे हैं।
‘गुड, गुड, गुड, नेहा, तुम इसकी क्लिेटोरिस सहलाओ। इसको भी साथ फॉल कराओ।’

एक हाथ मेरे अन्दर रेंग जाता है। सुरेश मुझ पर लम्बा हो गया है। मुझे कसकर जकड़ लेता है। जैसे हड़डी तोड़ देगा। भगनासा बुरी तरह कुचल रही है। ओऽऽऽह… ओऽऽऽह… ओऽऽऽह…
गुदा के अन्दर कोई चीज झटके से दाखिल हो जाती है।
मैं खत्म हूँ…
मैं खत्म हूँ…
मैं खत्म हूँ…

जिंदगी वापस लौटती है। नेहा सीधे मेरी आँखों में देख रही है, चेहरे पर विजयभरी मुस्कान, बड़ी ममता से मेरी ललाट का पसीना पोछती है, होंठों के एक किनारे से मेरी निकल आई लार को जीभ पर उठा लेती है। लगता है वह सचमुच वह मुझे प्यार करती है? बहुत तकलीफ होती है मुझे इस बात से।

वह रुमाल से मेरी योनि, मेरी गुदा पोंछ रही है। मेरा सारा लाज-शर्म लुट चुका है। फिर भी पाँव समेटना चाहती हूँ। नेहा रुमाल उठाकर दिखाती है। उसमें खून और वीर्य के भीगे धब्बे हैं।
वह उसे सुरेश को दे देती है- तुम्हारी यादगार।’

मैं उठने का उपक्रम करती हूँ, निर्मल मुझे रोकता है- रुको, अभी मेरी बारी है।’
‘तुम्हारी बारी क्यों?’ नेहा आपत्ति करती है।
‘क्यों? मैं इसे नहीं लूँगा?’

‘तुमने क्या इसे वेश्या समझ रखा है?’ नेहा की आवाज अप्रत्याशित रूप से तेज हो जाती है।
‘क्यों? फिर सुरेश ने कैसे लिया?’
‘उसने तो उसे समस्या से निकाला। तुमने क्या किया?’
निर्मल नहीं मानता। ‘नहीं मैं करूँगा।’

सुरेश कपड़े पहन रहा है। उसका हमदर्दी दोस्त के प्रति है। कमीज के बटन लगाते हुए कहता है- करने दो ना इसे भी।’
नेहा गुस्से में आ जाती है- तुम लोग लड़की को क्या समझते हो? खिलौना?’ नेहा मुझे बिस्तर से खींचकर खड़ी कर देती है- तुम कपड़े पहनो।’

फिर वह उन दोनों की ओर पलट कर बोलती है- लगता है तुम लोगों ने मेरे व्यवहार का गलत मतलब निकाला है। सुनो निर्मल, जितना तुम्हें मिल गया वही तुम्हारा बहुत बड़ा भाग्य है। अब यहीं से लौट जाओ। तुम मेरे दोस्त हो। मैं नहीं चाहती मुझे तुम्हा‍रे खिलाफ कुछ करना पड़े।

निर्मल कहता है- यह तो अन्याय है। एक दोस्त‍ को फेवर करती हो एक को नहीं।’

नेहा- तुम मुझे न्याय सिखा रहे हो? जबरदस्ती घुस आए और…’

निर्मल- सुरेश को तो बुलाकर दिलवाया, मैं खुद आया तब भी नहीं? यह क्या तुम्हारा यार लगता है?’

नेहा की तेज आवाज गूंजी- तुम मुझे गाली दे रहे हो?’

सुरेश को भी उसके ताने से से क्रोध आ जाता है- निर्मल, छोड़ो इसे।’

‘चुप रह बे ! तू क्या नेहा का भड़ुआ है? एक लड़की चुदवा दी तो बड़ा पक्ष लेने लगा।’
पानी सिर से ऊपर गुजर जाता है। दोनों की एक साथ ‘खबरदार’ गूंज जाती है, मारने के लिए दौड़े सुरेश को नेहा रोकती है।

निर्मल पर उसकी उंगली तन जाती है- खबरदार एक लफ्ज भी आगे बोले, चुपचाप यहाँ से निकल जाओ। मत भूलो कि लड़कियों के हॉस्टल में एक लड़की के कमरे में खड़े हो। यहीं खड़े खड़े अरेस्ट हो जाओगे।’
मैं जल्दी-जल्दी कपड़े पहन रही हूँ।

कमरे की चिल्लाहटें बाहर चली जाती हैं, दस्तक होने लगती है- क्या़ बात है नेहा, दरवाजा खोलो !’

अब मामला निर्मल के हाथ से निकल चुका है, वह कुंठा में अपने मुक्के में मुक्का मारता है।

मैं सुरक्षित हूँ। मेरा खून चखने वाले उसे राक्षस को एक लात जमाने की इच्छा होती है !

दुर्घटना से उबर चुकी हूँ। लेकिन स्थाई जख्म के साथ।

नेहा निर्देश देती है- कोई कुछ नहीं बोलेगा। सब कोई एकदम सामान्य सा व्य़वहार करेंगे।’

नेहा दरवाजा खोलकर साथियों से बात कर रही है- हाय अल्का, हाय प्रीति… कुछ नहीं, हम लोग ऐसे ही सेलीब्रेट कर रहे थे। एक खास बाजी जीतने की।’

मेरा कलेजा मुँह को आ जाता है, कहीं बता न दे। पर नेहा को गेंद गोल तक ले जाने फिर वहाँ से वापस लौटा लाने में मजा आता है। ऐसे सामान्य ढंग से बात कर रही है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बड़ी अभिनय-कुशल है।

उस दिन नेहा ने अपने करीबी दोस्त‍ निर्मल को खो दिया- मेरी खातिर। उस वहशी से मेरी रक्षा की। एक से बाद एक अपमान के दौर में एक जगह मेरे छोटे से सम्मान को बचाया।उसने मुझे केले के गहरे संकट से निकाला। कितना बड़ा एहसान किया उसने मुझपर !

लेकिन किस कीमत पर? मेरे मन और आत्मा में जो घाव लगा, मैं किसी तरह मान नहीं पाती कि उसके लिए नेहा जिम्मेदार नहीं थी। बल्कि उसी ने मेरी दुर्दशा कराई। उसी के उकसावे पर मैंने केले को आजमाया था। मेरी उस छोटी सी गलती को नेहा ने पतन की हर इंतिहा से आगे पहुँचा दिया।

फिर भी पहला दोष तो मेरा ही था। मैंने नेहा से दोस्ती तोड़ देनी चाही- बेहद अप्रत्यक्ष तरीके से, ताकि अहसान फरामोश नहीं दिखूँ।

पर मेरा उससे पिंड कहाँ छूटा। वह मेरी तारणहार, मेरी विनाशक दोनों ही थी। अमरीका में उसने जो मेरे साथ कराया, वह क्या कम शर्मनाक था?
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