मेरे चाचा और मेरा अपनत्व

कोई कभी इस प्यार को कैसे समझ पाएगा कि उस छोटी सी चौदह वर्ष की परिवार की सीखों और समाज की कुत्सित नज़रों से डरी-सहमी किशोरी को क्या सुकून मिला होगा जब दो हथेलियों ने अपरिसीमित स्नेह से उसके सिर को सहलाया होगा।
सहलाने वाला तो कोई अपना ही है, यह तो उस किशोरी को भी मालूम था लेकिन अपने में छुपे उस सबसे अपने को ढूंढना इतना भी सरल नहीं था।

उस दिन जब किसी बड़े के और समाज के बेरहमी से यह अहसास दिलाने पर कि 14 वर्ष की उमर में ही वो बहुत बड़ी हो गई है…
उसी अपने ने उसको पुचकारा था, दिलासा दिलाई थी।
उस दिन पहली बार चाचा-भतीजी के रिश्ते से आगे बढ़ कर वो दोनों मित्र बन गए थे और न मालूम कब एक दूसरे के लिए यह स्नेह बदल कर मुहब्बत हो गया।

दोनों के मध्य उम्र का अन्तर भी केवल पाँच वर्ष का था। कभी ऐसा महसूस ही नहीं हुआ तब कि प्रकृति का वो नियम जो नर और नारी को एक दूसरे से जोड़ता है, वो नियम समाज और उसके बन्धनों के समक्ष घुटने टेक देगा।

हम दोनों साथ साथ बिना विवाह के भी रह सकते हैं प्रेम की सीमा विवाह और शारीरिक सम्बन्धों में तो नहीं बन्धी।
कई प्रेमियों को साथ-साथ रहने का सुख मिल जाता है, तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दूर रह कर भी प्यार का अहसास लिए जी लेते हैं।

लेकिन मुझे तो यह लग रहा है कि मैं कभी अपने मन की बात जगजाहिर कर सकूँगी?
मुझे मालूम है मेरी कोई सुनेगा नहीं और दोष मुझे और उसे मिलेगा जो मेरी सुनता रहा है और सुनता रहेगा।

मुझे पता है कि कोई भी राय मेरे पक्ष को मजबूत नहीं कर सकती लेकिन फिर भी अगर आप मुझे कोई राय देना चाहें तो बेहिचक बताइएगा।

आपके जवाब की प्रतीक्षा में…