एक थी वसुंधरा-2

तत्काल वसुंधरा का हाथ मेरे हाथ पर कस गया. वसुंधरा की आँखें अभी तक बंद थी और खुद वसुंधरा अभी तक अपने अवचेतन मन के प्रभाव में थी. मैंने गौर से वसुंधरा के चेहरे की ओर देखा. वसुंधरा के नाक़ में लौंग की हीरे की कणि रह-रह कर चमक बिखेर रही थी. नाक में मौज़ूद हीरे का लौंग वसुंधरा के दबंग व्यक्तित्व को एक गरिमापूर्ण स्त्रीत्व प्रदान कर रहा था. उम्र के बढ़ कर गुज़रते साल, अपने आने-जाने के निशान वसुंधरा की साफ़-सुथरी त्वचा पर छोड़ने में असमर्थ रहे प्रतीत हो रहे थे. वसुंधरा का कसा हुआ सुतवां ज़िस्म नित्य योगा और क़सरत की बदौलत अभी तक तो उम्र को पछाड़ने में क़ामयाब रहा था.

वसुंधरा ने चार-पांच किलो वजन और कम कर लिया था जिस के कारण चेहरे के नैन-नक्श और भी ज़्यादा तीख़े हो गए प्रतीत हो रहे थे लेकिन दोनों आँखों के नीचे … बहुत गौर से देखने पर दिखने वाले हल्के काले घेरे कुछ और भी ऐसा कह रहे थे जिस को समझने के लिए … कम से कम मुझे … जीनियस होने की जरूरत नहीं थी.
“ओह वसुंधरा! मेरी वसु … काश! मैं तेरे लिए कुछ कर पाता.” मेरे दिल से एक आह सी निकल गयी.

मेरे दोनों हाथों में अपना हाथ थमाये होठों पर किंचित सी मुस्कराहट लिए वसुंधरा हल्की नींद में सच में कोई अप्सरा लग रही थी. ऐसे ही जाने कितना समय बीता. तभी ड्राइंगरूम की कू-कू घड़ी की कोयल ने कूह-कूह कर के पांच बजाए. चौंक कर वसुंधरा ने अपनी आँखें खोली. निग़ाहें चार हुई. तत्काल वसुंधरा की आँखों में आश्चर्य का एक भाव लहरा गया.
“अरे राज! आप …! आप कब आये?” वसुंधरा का हाथ बदस्तूर मेरे हाथों में था.
“मैं कब आया … बेमानी है यह पूछना. आप ने मुझे देख लिया … यह बड़ी बात है.” अभी भी वसुंधरा के बायें हाथ की उंगलिया मेरे दाएं हाथ की उँगलियों में गुंथी हुयी थी और मेरा बायां हाथ वसुंधरा के बायें हाथ की पुश्त मुसल्सल सहला रहा था.

सहसा ही वसुंधरा के होंठों पर एक स्निग्ध मुस्कान झिलमिला उठी और वसुंधरा की उंगलियों की पकड़ मेरी उँगलियों पर मज़बूत हो गयी. रसीले होंठों का धनुषाकार कटाव कुछ और ख़मदार हो उठा और बाएं गाल का डिम्पल थोड़ा और गहरा हो गया.
अचानक ही हवा में एक जादू सा घुल गया, यूं लगा कि फ़िज़ां कुछ और रंगीन हो गयी हो जैसे. सच कहता हूँ दोस्तों! कुछ मुस्कुराहटें होती ही इतनी दिलकश हैं कि पूछिए मत. एक मुद्दत के बाद आँखों में आँखें, हाथों में हाथ लिए वसुंधरा और मैं, दोनों ख़ामोश … एक-दूसरे के क़रीब थे … इतने करीब कि दोनों एक-दूसरे के धड़कनों को सुन पा रहे थे.

त्रिलोक मौन था लेकिन पूरी क़ायनात सुन रही थी. पाठकगण! विश्वास कीजिये! जब कहने की शिद्दत बहुत ज़्यादा हो, तब शब्द गौण हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में तो मौन-सम्प्रेषण ही एकमात्र ज़रिया होता है, खुद को बयाँ करने का.
“अच्छा! एक मिनट … छोड़िये.” कसमसाते हुए वसुंधरा ने सरगोशी की.
“उँह … हूँ!” मैंने कुनमुनाते हुये विरोध किया.
“राज! प्लीज़ …! मुझे रेस्ट-रूम जाना है.” वसुंधरा ने चिरौरी की और कुर्सी से उठ कर खड़ी होने का उपक्रम करने लगी.

मैंने अनमने ढंग से वसुंधरा का हाथ अपनी पकड़ से जाने दिया. उठ कर मैं आतिशदान के नज़दीक तिरछी रखी दो ट्विन सोफ़ा-चेयर्स में से एक पर जा बैठा और उस को एकटक देखने लगा. काली साड़ी पर महरून गर्म शॉल और नीचे गोरे बेदाग़ पैरों में क्रीम रंग के हाउस स्लीपर्स, वज़न और कम कर लेने के कारण वसुंधरा की कमर का ख़म और क़ाबिले-दीद हो गया था. तिस पर नाभि से तीन इंच नीचे, सुडौल नितम्बों पर सुरुचिपूर्वक कसी साड़ी.
वसुंधरा के जिंदगी के प्रति टेस्ट बहुत ही लाज़बाब थे.

अपने से दूर जाती वसुंधरा के सुडौल नितम्बों की ऊपर नीचे हिलौर देख कर मेरे मन में एक वहशी सवाल आया कि आज इस काली साड़ी-ब्लाउज़ के नीचे वसुंधरा ने अंडरगारमेंट्स कौन से रंग के पहन रखे होंगें?
तत्काल मेरे दिल ने कहा ‘काले रंग के.’
“क्या आज वसुंधरा ने अपने प्युबिक-हेयर साफ़ किये होंगें?” मेरे मन में सवाल उठा.
“शायद किये हों!?” मेरे दिल ने एक आधी-अधूरी सी आस जताई.

काली डिज़ाईनर पैंटी में वसुंधरा की साफ़-सुथरी रोमविहीन योनि का तस्सुवर करते ही मेरे लिंग में भयंकर तनाव आ गया. वसुंधरा और मेरे उस अभिसार को चौदह महीने हो चुके थे लेकिन आज फिर से वसुंधरा के कॉटेज़ में मुझे वसुंधरा के प्रति वही अति-तीव्र प्रेम के संवेगों से ओत-प्रोत कामानुभूति महसूस हो रही थी.
लेकिन उस मामले में दिल्ली अभी दूर थी. अभी तो वसुंधरा की सुननी थी, अपने चौदह महीनों के बेक़सी बयान करनी थी, वसुंधरा की शादी तय होने का किस्सा सुनना था और वसुंधरा के भविष्य की योजना की थाह लेनी थी. क्या फर्क पड़ता था? पूरी रात अपनी थी और मैं इस रात के एक-एक पल को जी भर कर जी लेना चाहता था.

तभी बाथरूम का दरवाज़ा खोल कर होठों पर मुस्कान लिए निखरी-निथरी वसुंधरा बाहर आयी. वसुंधरा ने बाथरूम में मुंह-हाथ धो लिया था, बाल भी संवार लिए थे. तह लगा महरून शॉल वसुंधरा की बायीं बाजू पर था. सामने से देखने पर … हालांकि सीने पर साड़ी का आवरण था लेकिन वसुंधरा का उन्नत, सुडौल और सुदृढ़ वक्ष छुपाये नहीं छुप रहा था.

“मैं कॉफ़ी बनाती हूँ … आप आईये और मेरे साथ चल कर किचन में बैठिये, दोनों बातें करेंगे.” सोफे की पुश्त पर अपना शॉल रखते हुए वसुंधरा बोली.
“नहीं! आप यहां आकर बैठिये … मेरे पास.” मैंने दूसरी कुर्सी की ओर इशारा करते हुये कहा
” राज! चलिये न … प्लीज़! काफी बनाते-बनाते बात करते हैं. मैंने दोपहर से कुछ खाया नहीं है.”

एकाएक मुझे खुद पर बहुत शर्म आयी.
“ठीक है चलिये! … आ रहा हूँ.” कह कर मैंने पैक करवा कर लाये इवनिंग स्नैक्स और खाने वाला कैरी-बैग उठाया और वसुंधरा के पीछे-पीछे हो लिया.

हम दोनों के पास सिर्फ आज ही की रात थी और आज की रात हम दोनों ही एक-दूसरे को एक मिनट के लिए भी अपनी आँख से ओझल नहीं होने देना चाहते थे.

किचन में कॉफ़ी बनाते-बनाते और आतिशदान के निकट ट्विनसीटर सोफ़े पर एक ही शॉल में सिमटे, आजू-बाज़ू बैठ कर इवनिंग स्नैक्स का आनंद लेते-लेते और कॉफ़ी पीते-पीते वसुंधरा ने बताया कि उसका वुड-वी वसुंधरा का ही एक एक्स-क्लासमेट है और आजकल मर्चेन्ट-नेवी में है. पिछले पांच साल से एक *** शिपिंग कम्पनी के हैड-ऑफिस जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में पोस्टेड है.

इस शिपिंग कम्पनी के बारे में मैंने पहले ही से सुन रखा था. करीब 25000 एम्प्लॉइज़ वाली स्विट्ज़रलैंड की ये तक़रीबन पचास साल पुरानी और वर्ल्ड की टॉप की शिपिंग कंपनी थी जिस का कारोबार करीब 153-154 देशों में फ़ैला हुआ था. दो फ़रवरी को शादी के बाद सात फ़रवरी को वसुंधरा अपने पति के साथ के जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड को उड़ जायेगी.
और वापसी?
भगवान् जाने!

“क्या मैं वसुंधरा को फिर कभी नहीं देख पाऊंगा? क्या यह मेरी और वसुंधरा की आखिरी मुलाक़ात है?” सोच कर मेरे मन में एक हूक़ सी उठी और अनायास ही मैंने अपनी बायीं बाजू लम्बी कर के अपने बाएं पहलु बैठी वसुंधरा के दूर वाले कंधे पर हाथ रख कर वसुंधरा को अपने और नज़दीक कर लिया.
और वसुंधरा भी सरक कर मेरे पहलू में आ सिमटी.

वसुंधरा ने मेरे कोट की अंदर-अंदर की तरफ़ से अपना दायां हाथ लंबा कर के मेरी पीठ की ओर से मेरी दायीं तरफ की पसलियों को जकड़ लिया. मैंने अपना सर घुमा कर वसुंधरा की ओर देखा. वसुंधरा पहले ही से मेरी ओर देख रही थी. नज़रों-नज़रों में एक-दूसरे के अंतर तक उतर जाने वाली निग़ाह से हम दोनों कितनी ही देर दो-चार होते रहे.

अंत में वसुंधरा ने एक ठंडी सांस ली और आँखें बंद कर के अपना सर मेरे बाएं कंधे पर टिका दिया. ये लम्हें बेशकीमती थे और न तो दोबारा दोहराये जाने थे … न ही वापिस मिलने के थे. तो इसलिए इन लम्हों की सारी रुमानियत मैं शिद्दत से अपने अंदर उतार रहा था. आइंदा वसुंधरा और राजवीर सिर्फ़ और सिर्फ़ सपनों में ही एक-दूसरे को छू पायेंगे … ऐसी सोच आते ही एक गुबार सा मेरे गले में आ कर अटक गया. लेकिन कल सुबह और आज शाम के बीच में तो पूरी एक रात अभी भी बाकी थी … मतलब! एक रात की जिंदगी अभी बाकी थी. अरे वाह!

ऐसे ही एक-दूजे के पहलू में निःशब्द बैठे हम दोनों, आँखें मूंदे हुए एक-दूसरे के गर्म जिस्म की हरारत को महसूस करते हुए जाने कितनी ही देर … बाहर हो रहे प्रकृति के नर्तन की ताल को सुनते रहे.

बाहर पवनदेव की तान पर बारिश की बूंदों का नृत्य जारी था, बारिश कभी हल्की, कभी तेज़ लेकिन लगातार हो रही थी. छत पर पड़ती बूंदों की ताल में शिव और शक्ति के मिलन का अनंत अनहद-नाद गूँज रहा था. बारिश, बादल, हवा, अँधेरा, एकांत और प्रियतम का साथ … यह सब कामदेव और रति की सत्ता स्थापित होने के इशारे हैं. प्रकृति और पुरुष का संगम इस समस्त सृष्टि का एक गूढ़तम रहस्य है जिस में इस सृष्टि के सब नर-नारी अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार तो जरूर उतरते हैं. फिर उस अनुभव को बार-बार दोहराने के लिए चौरासी लाख योनियों के फेर में पड़ना भी मंज़ूर करते हैं.

बहुत ही ख़ुशनसीब था मैं … कि चाहे 425 दिन बाद ही सही, मैं ठीक उसी जग़ह, लगभग उसी समय, करीब-क़रीब उसी तरह के मौसम में दोबारा वसुंधरा जैसी प्रेयसी के पहलू में था. ऐसा दुर्लभ संयोग हज़ारों सालों में, लाखों में किसी एक के साथ घटित होता है और ये सब आइंदा फिर कभी दोहराया जायेगा … ऐसा सोचना भी मूर्खता की परकाष्ठा के इतर कुछ और हो ही नहीं सकता था.
कल सुबह के बाद इस जन्म में तो वसुंधरा से ऐसे मिलना तो दोबारा मुमकिन ही नहीं हो पायेगा.

यकायक भावविहल हो कर मैंने अपने दाएं हाथ से वसुंधरा का बायां हाथ जोकि वसुंधरा की गोदी में धरा था … पकड़ कर उस के हाथ की पुश्त को चूम लिया.

तत्काल वसुंधरा की आँखें बंद हो गयी और कंपकंपी की लहर वसुंधरा के जिस्म में दौड़ गयी. हालांकि वसुंधरा मेरे पहलू में बैठी थी लेकिन एक तरह से मेरे आलिंगन में थी. यह भाव-भरा समर्पण, प्यार था … केवल प्यार! पर देर-सवेर इस में वासना का समावेश तो हो के रहना था. लेकिन गहरे नेह और अपनत्व की भावना से ओत-प्रोत अपने साथी के समक्ष किया गया समर्पण, पाप कदापि नहीं कहलाता अपितु ऐसी प्रणय-लीला तो किसी महान आत्मा के इस भूमण्डल पर आने का मार्ग प्रशस्त करती है.

तभी मेरी नज़र सामने वॉल-क्लॉक पर पड़ी. साढ़े-सात बजने को थे. ख़ुदाया! सुख की घड़ियाँ कैसे हिरन की भांति कुलांचें भरती गुज़रती हैं. सुबह घर से ब्रेकफ़ास्ट कर के निकलने के बाद से पूरे दिन में मैंने सिर्फ़ तीन-चार कप चाय और दो कप कॉफ़ी ही पी थी, ऊपर से वसुंधरा जैसी प्रेयसी का समीप्य … सब कुछ सोने पर सुहागे वाले लक्षण थे. सो! उन का भी गुर्दों पर असर था, नतीज़तन! बहुत देर से मेरे ब्लैडर पर दबाब पड़ रहा था और लगातार बढ़ता ही जा रहा था.

” वसु … ! ” मैंने हल्के से वसुंधरा को टहोका.
“जी … !” वसुंधरा ने अपनी आँखें खोल दी.
“एक मिनट! मुझे वॉशरूम जाना है.”
वसुंधरा ने शरारतन अपना सर ‘न’ में हिलाया.
“वसु! प्लीज़ … !”
जबाब में वसुंधरा ने अपनी पकड़ मुझ पर और मज़बूत कर दी.
“वसु! समझा करो यार …!” मेरे स्वर में याचना उभर आयी.
“ओके! आप ऐसा कीजिये कि आप फ्रेश भी हो लीजिये और चेंज भी कर लीजिये, तब तक मैं खाना लगाती हूँ. फिर इकट्ठे डिनर करेंगे.” कहते हुए वसुंधरा ने अपनी पकड़ मुझ पर से ढीली की और सोफे से उठने का उपक्रम करने लगी.

कहानी जारी रहेगी.
[email protected]