अग्निपरीक्षा

ऑफिस में अपने सहयोगियों से अच्छी पटती थी सुरेखा की। आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी, मृदुभाषिणी, सदा सबके साथ सहयोग करने वाली सुरेखा थी ही ऐसी, जो मिलता प्रभावित हो जाता।

सुदीप, उसके सहकर्मी ने ऑफिस के काम में उनकी बहुत सहायता की। सुरेखा के हृदय में कृतज्ञता की भावना थी सुदीप के प्रति।

प्रायः लौटते समय काम निबटा कर साथ साथ ही निकल जाते थे दोनों।

कभी काफी, स्नैक्स आदि लेकर सुरेखा ऑफिस बस के स्थान पर ऑटो या लोकल ट्रेन पकड़ कर घर पहुँच जाती थी। आत्मीयतापूर्ण व्यवहार मिलने से दोनों एक-दूसरे के साथ अपनी परेशानियाँ भी साझा कर लेते। सुरेखा विश्वास भी करने लगी थी सुदीप का।

अचानक ही एक दिन सुदीप ने उनके समक्ष शादी का प्रस्ताव रख दिया। सुरेखा को बुरा नहीं लगा क्योंकि उसको भी सुदीप का साथ अच्छा लगने लगा था।

अपने माता-पिता से भी उसने कुछ सकुचाते हुए सुदीप के प्रस्ताव के विषय में बताया।

भिन्न जाति, रहन-सहन का पता चलने पर माता-पिता को कुछ असहज लग रहा था, परन्तु सगे सम्बन्धियों और मुम्बई वासी मित्र से बात करके उन्होंने सुदीप के विषय में जानकारी करने को कहा।

सब कुछ सामान्य देख कर और सुदीप से प्रभावित हो कर मित्र ऩे सुरेखा के पिता को तैयार कर लिया।

सुदीप के माता-पिता तो किसी सड़क दुर्घटना का शिकार हो स्वर्ग सिधार चुके थे, हाँ एक छोटा अविवाहित भाई अवश्य था जो विदेश में रहता था।

सुरेखा के माता-पिता ऩे मुम्बई आकर सुदीप से स्वयं भी मिलकर दोनों का विवाह सादगी से सम्पन्न करा दिया। सुदीप के कोई दूर के सम्बन्धी और भाई तथा ऑफिस के साथी, मित्र उपस्थित रहे, कुछ समय वहीँ रूककर वो लोग अपने शहर लौट आये।

सुदीप और सुरेखा ऩे अपना अलग घर ले लिया था। घूमने फिरने में कब समय पंख लगाकर उड़ गया पता ही नहीं चला।
घर, ऑफिस, घूमना-फिरना यही दिनचर्या रहती थी दोनों की।

दोनों की जोड़ी लोगों के लिए चर्चा व कुछ के लिए ईर्ष्या का विषय थी। सुरेखा का साथ पाकर सुदीप भी स्वयं को धन्य ही मानते थे।

एक दिन दोनों फिल्म देखकर लौट रहे थे, बाईक पर सवार सुदीप और सुरेखा को चारों तरफ से कुछ मवाली छाप गुंडों ने घेर लिया।

सस्ती बातें करते हुए उन गुंडों के इरादे कुछ नेक नहीं थे। सुरेखा की सुन्दरता को लेकर उन गुंडों की अश्लील बातें सुनकर उन दोनों ऩे अनहोनी का अंदाजा लगा लिया था।

दोनों की बहुत देर तक हाथापाई हुई और अंत में वही हुआ जिसका डर उन दोनों को था, गुंडे सुरेखा को उठाकर ले गये। सुदीप अकेले हाथ मलते कुछ भी नहीं कर सके।

पुलिस में शिकायत दर्ज कराना, निरर्थक भागदौड़ यही सब दो दिन तक चलता रहा।

तीसरे दिन सुरेखा भाग कर घर पहुँची, अपने घर आकर उसको राहत मिली। सुदीप घर पर ही थे।

सुरेखा उनके गले लगकर बिलखती रही। परन्तु सुरेखा को अहसास हुआ कि सुदीप की प्रतिक्रिया कुछ विचित्र थी, उन्होंने कोई ढाढस नहीं बंधाया सुरेखा को, बस औपचारिकता वश उनको चुप कराया। सुरेखा की आशा के विपरीत सुदीप ऩे उससे ढंग से बात भी नहीं की।

सुरेखा ऩे आपबीती सुनाने का प्रयास किया परन्तु सुदीप बोले- बचा ही क्या है।
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सुरेखा को लगा कि वो कुछ समझी नहीं, उसने पूछा- मतलब?

सुदीप का ठंडा सा उत्तर था- दो दिन कैसे रही तुम गुंडों के साथ? लोग क्या कहेंगें, सोचेंगें?

सुरेखा तो मानो आसमान से गिरी, परन्तु सुदीप की सोच नहीं बदली।
पति की आँखों में अविश्वास और उपेक्षा, वो भी जब वो पति के साथ ही थी और निर्दोष थी।

सहन नहीं कर सकी दी, और नींद की गोलियाँ खाकर स्वयं चिर निंद्रा में सो गई।

सुरेखा का दोष क्या था, उसका सौंदर्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु बन गया !

इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला कि निर्दोष होने पर भी सीता को ही सदा अग्निपरीक्षा क्यों देनी पड़ती है?